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लालू के अवसान से बदलेगी राजनीति की आवोहवा

वैचारिकी
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जयप्रकाश नारायण के छात्र आंदोलन की उपज लालू प्रसाद यादव भी अब उन नेताओं की फेहरिस्त को आगे बढाते नज़र आयेंगे जिनके बारे में यह कहा जाता है कि युवा राजनीति में प्रवेश करते ही इसके दांव-प्रपंचों को आत्मसात कर इसकी भ्रष्टता को बढ़ावा देते हैं। अपने मसखरे अंदाज और राजनीति में जातिवाद को साधकर बिहार के मुख्यमंत्री पद से लेकर केंद्रीय मंत्री बनने के सफ़र में लालू ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं और जब यह लग रहा था कि बिहार की राजनीति से लेकर केंद्र की राजनीति में उनका वर्चस्व पुनः बढ़ रहा है, सीबीआई की विशेष अदालत ने उन्हें चारा घोटाले के एक मामले में ५ वर्ष की सज़ा और २५ लाख रुपए के जुर्माने का आदेश देकर उनकी लालटेन की चमक को फीका कर दिया है। उनके साथ ही बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र और जदयू के सांसद जगदीश शर्मा को चार साल की सजा सुनाई गई है। जगन्नाथ मिश्र पर २ लाख रुपए और जगदीश शर्मा पर 5 लाख रुपए का जुर्माना भी लगा है। तमाम राजनेताओं की तरह लालू ने भी राजनीति के उतार-चढ़ाव को देखा है और कई बार ऐसे-ऐसे निर्णय लिए हैं जो राजनीतिज्ञों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों तक ने नकार दिए किन्तु लालू की दूरदर्शिता ने उन्हें आईना दिखा दिया। फिर चाहे वह १९९७ में अपनी पत्‍नी राबड़ी देवी को रातोंरात बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हो या रेलवे को घाटे से उबारने सम्बन्धी उनकी आंकड़ों की बाजीगरी, उनके इन्हीं विवादास्पद निर्णयों ने उन्हें राजनेताओं की कतार से हमेशा अलग दिखाया है। राजनीतिक विरोधियों का कहना था कि लालू और उनकी पत्‍नी राबड़ी की लालटेन जब तक जली, बिहार की हर गली में अंधेरा रहा। उनके शासन को ‘अपराध के व्यवस्थित कल्चर’ और ‘जंगल राज’ के लिए भी याद किया जाता है। उपरी तौर पर विरोधियों का यह आरोप सही भी जान पड़ता है किन्तु फिर भी आप लालू को तमाम विरोधों के बावजूद ख़ारिज करने का साहस नहीं जुटा सकते। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार जब १३ दिन में लुढ़क गई थी, तो उनके विरोधियों को भी यह अहसास हो गया था कि बिहार का यह नेता किंगमेकर के रूप में कितना अहम है? युनाइटेड फ्रंट सरकार के एच डी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने में भी देवेगौड़ा का जलवा कम और लालू का ज्यादा था। लालू ने ही प्रधानमंत्री के रूप में उनका नाम आगे बढ़ाया था और ऐसा कहा जाता है कि खुद देवेगौड़ा भी इस बात पर हैरान रह गए थे। आज यही किंगमेकर जेल की सलाखों के पीछे खुद के और पार्टी के भविष्य की चिंता कर रहा है। एक समय था जब देश भर का मीडिया होली के दिन लालू के रंग-बिरंगे अंदाज को चटखारे ले-लेकर सुनाता-दिखाता था और आज भी वही मीडिया लालू के उखड़े रंग को उनके खिलाफ जाती सुर्ख़ियों के जरिये दिखा रहा है। सीबीआई की विशेष अदालत ने लालू को जो सजा सुनाई है उसके अनुसार लालू अब ११ वर्षों तक सक्रिय राजनीति से दूर रहेंगे। वहीं उनकी संसद सदस्यता भी रद्द होगी। दरअसल, उच्चतम न्यायालय के दागियों के संबंध में दिए गए हाल के निर्देशों की जद में आए लालू अब चाहकर भी राजनीतिक दांव-पेंचों का सहारा नहीं ले सकते। वैसे देखा जाए तो लालू को मिली यह सजा पहली नहीं है। लालू को छठी बार भ्रष्टाचार से जुड़े मामले में जेल जाना पड़ रहा है। लालू को इससे पूर्व चारा घोटाले से ही जुड़े नियमित मामले ४७ ए ९६ में २६ नवम्बर २००१ को जेल जाना पड़ा था। उस समय उन्हें ५९ दिन जेल में रहना पड़ा। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के नियमित मामले ५ ए ९८ में जमानत की अवधि समाप्त होने के बाद पटना में ब्यूरो की विशेष अदालत ने एक दिन के लिए २८ नवम्बर २००० को न्यायिक हिरासत में केन्द्रीय आदर्श कारागार बेऊर भेज दिया था। इससे पहले इसी मामले में लालू ५ अप्रैल २००० को तब जेल गए थे, जब सीबीआई की विशेष अदालत में आत्मसमर्पण के बाद न्यायाधीश ने उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी थी। लालू की यह तीसरी जेल यात्रा थी। इस मामले में उन्हें ११ मई को ३ माह के औपबंधिक जमानत पर केन्द्रीय आदर्श कारागार बेउर से रिहा किया गया था। वहीं चारा घोटाले के दो अन्य मामलों में लालू जेल जा चुके हैं। पहली बार  उन्हें ३० जुलाई १९९७ में चारा घोटाले के नियमित मामले २० ए ९६ में १३४ दिनों के लिए जेल भेजा गया था और उसके बाद उन्हें २८ अक्टूबर १९९८ को चारा घोटाले के ही नियमित मामले ६४ ए ९६ में ७३ दिनों के लिए दोबारा जेल जाना पड़ा था। हालांकि लालू के पास उच्च न्यायालय जाकर अपनी कथित बेगुनाही साबित करने का रास्ता है किन्तु इस मामले में भी वे बदकिस्मत ही कहलायेंगे कि ५ अक्टूबर २०१३ से १६ अक्टूबर २०१३ तक झारखंड उच्च न्यायालय में दस दिवसीय अवकाश है और उनके वकीलों के पास अब १६ अक्टूबर के बाद ही उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का विकल्प बचा है।

बिहार की राजनीति में एकछत्र राज के बाद केंद्र में किंगमेकर की भूमिका और फिर पतन के रास्ते में लालू ने राजनीति की मुख्य धारा के विपरीत ही काम किया है और शायद यही वजह है कि उनकी सजा एक ओर तो ख़ुशी पैदा करती है वहीं यह दुःख भी होता है कि जेपी आंदोलन की उपज यादव तिकड़ी में लालू का अवसान सचमुच किसी बुरे सपने के समान है। कांग्रेस के सहज सहयोगी के रूप में लालू ने यूपीए की पहली पारी को जिस जतन से संजोया था, कांग्रेस चाहकर भी अब उनके लिए कुछ नहीं कर सकती। फिर लालू को मिली सजा से यह सवाल भी उठता है कि अब बिहार की राजनीति में बुझती लालटेन को कौन प्रकाशवान करेगा? हालांकि लालू की पत्नी राबड़ी देवी का कहना है कि जिस प्रकार राजीव गांधी की असमय मृत्यु ने सोनिया और राहुल के कंधों पर कांग्रेस को मजबूत करने का बोझ डाला था, वही काम अब वे और उनका क्रिकेट में असफल बेटा लालटेन के लिए करेंगे। राबड़ी का यह विचार भावनात्मक रूप से तो सराहना का पात्र है किन्तु राजीव गांधी का दौर कुछ और था और लालू का दौर और है। राजीव की मृत्यु के वक्त कांग्रेस मजबूत थी और पीवी नरसिम्हा राव, अर्जुन सिंह, नारायणदत्त तिवारी जैसे कद्दावर नेता उनकी और गांधी-नेहरु परिवार की विरासत को संभालने के प्रति दृढप्रतिज्ञ थे। सोनिया के पास कांग्रेस की कमान को काफी बाद में आई जब सीताराम केसरी, जनार्दन द्विवेदी जैसे नेताओं ने कांग्रेस की डूबती नैया को संभालने का उनसे आग्रह किया था वरना तो पीवी नरसिम्हा राव ने सोनिया को राजनीति के ऐसे-ऐसे दांव दिखलाए थे कि सोनिया राहुल और प्रियंका को लेकर वापस इटली जाने का इरादा कर चुकी थीं। फिर कांग्रेस की कमान भले ही सोनिया के हाथ में रही हो किन्तु उनके सलाहकारों के रूप में राजनीतिक चाणक्यों की कोई कमी नहीं रही है। क्या राबड़ी के पास ऐसे राजनीतिक चाणक्य हैं जो स्वहितों को तिलांजलि देकर लालटेन की लौ को पुनः जलाने में अपना योगदान दें। फिर लालू ने राजनीति के अपने सुनहरे दौर में दोस्त कम दुश्मन ज्यादा बनाए, तो क्या यह संभव है कि परिवारवाद की राजनीति में कोई राबड़ी का खुलकर साथ देगा? शायद नहीं। लालू द्वारा बनाए गए माई समीकरण का खात्मा कर नीतीश ने लालू को राजनीतिक वनवास तो दे ही दिया था, रही-सही कसर दलितों में से महादलित के समीकरण ने पूरी कर दी। उनके साले साधू यादव से से लेकर अन्य तमाम राजनीतिक सहयोगी भी लालू का साथ छोड़ गए। हाल ही में राजद की ओर से प्रभुनाथ सिंह ने महाराजगंज से जो उपचुनाव जीता था, वह भी लालू के करिश्मे के कारण नहीं बल्कि क्षेत्र में अपनी प्रभुता के कारण। यानि बिहार में राजद की ज़मीन लगभग खत्म ही थी। हां, यह अनुमान अवश्य लगाए जा रहे थे कि नीतीश के भाजपा से संबंध विच्छेद लालू की राजनीति को मजबूत करेंगे और राज्य के बिखरे मतदाता एक बार फिर अपने लाडले के सर माथे विजयश्री का तिलक करेंगे। मगर अफ़सोस की लालू को विजयश्री के तिलक की जगह हाथ में हथकड़ियां मिलीं। अब जबकि लालू जेल जा चुके हैं और उनकी राजनीति पर भी विराम लग गया है तो बिहार में निश्चित रूप से समीकरणों में बदलाव होगा और लालू का वोट बैंक भाजपा और नीतीश के बीच बंट जाएगा। अगड़ी जाति भगवा रंग में रंग सकती है तो मुस्लिमों को नीतीश के साथ टोपी पहनने में गुरेज नहीं होगा। अतिदलितों का जो थोडा बहुत कुनबा भी लालू के साथ था वह रामविलास पासवान के पक्ष में जाता दिख रहा है। कांग्रेस बिहार में लालू के समय में भी शून्य थी और अब भी शून्य ही है। कुल मिलाकर बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है जिसका असर निश्चित रूप से राष्ट्रीय राजनीति पर भी होगा। राहुल का दागियों को बचाने वाले अध्यादेश को बकवास करार देना और नीतीश का उनके पक्ष में जाना शायद इसी कड़ी का पहला सिरा है।

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