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आडवाणी तय करें वे क्या चाहते हैं?

वैचारिकी
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नरेन्द्र मोदी को लेकर तमाम आशंकाओं, सियासी झंझावातों, वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एंड पार्टी का विरोध, कांग्रेस का मीडिया मेनेजमेंट और मानसून की आमद; ये वे कारक हैं जो गोवा में जारी भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को गरमाए हुए हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश के ग्वालियर में पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ताओं के समक्ष जिस तरह आडवाणी ने मोदी विरोध का झंडा बुलंद किया था और प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान के कंधे पर रखकर सियासी चाल चली थी, यह तभी साफ़ हो गया था कि गोवा में पार्टी का सौहार्दपूर्ण मिलन दिवास्वप्न ही होने वाला है। गोवा ही वह जगह थी जहां टीम राजनाथ पहली बार अपनी नियुक्ति के बाद चिंतन-मनन करने वाली थी पर इस चिंतन-मनन पर आडवाणी-मोदी के बीच जारी सियासी अदावत की चिंता भारी पड़ गयी। खबर है कि राष्ट्रीय उपाध्यक्ष उमा भारती सहित कई वरिष्ठ नेता राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से किनारा कर चुके हैं। इससे पूर्व शुक्रवार को पार्टी के संसदीय बोर्ड की भी बैठक रखी गयी थी ताकि आपसी गिले-शिकवे दूर हों और मोदी को लेकर एक राय बनाई जा सके किन्तु राजनीति में निपुण घाघ और दबाव में अपनी बात मनवाने की महारत हासिल करने वाले आडवाणी ने बीमारी का बहाना बनाकर संसदीय बोर्ड की बैठक से किनारा कर लिया। हालांकि आडवाणी के आने- न आने को लेकर भी पार्टी में मतभिन्नता है किन्तु आडवानी के इस पैंतरे से संघ निश्चित रूप से नाखुश होगा। दरअसल संघ को लगता है कि मोदी को आगे कर वह पुनः कथित हिंदुत्व की बुझती लौ को भड़का सकेगा और एक बार फिर सत्ता के शीर्ष पर काबिज हो सकेगा। किन्तु आडवाणी के मोदी विरोध के चलते संघ न तो मोदी को आगे कर पा रहा है और न ही आडवाणी को नेपथ्य में ढकेल पा रहा है। वैसे भी आडवाणी को यूं खारिज कर देना अब संघ के बूते के बाहर की बात है। राजनाथ सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनवाकर संघ को लगता था कि वह भाजपा से आडवाणी युग की समाप्ति की दास्तां लिख देगा पर अब तक तो ऐसा होता दिख नहीं रहा है। हालांकि राजनाथ सिंह की कार्यशैली को जानने वाले यह बखूबी जानते होंगे कि वे संघ को भी अपने दरवाजे पर नतमस्तक करवा सकते हैं। पर आडवाणी और मोदी की सियासी लड़ाई में उनकी भूमिका भी बड़ी रहस्यात्मक होती जा रही है। कभी वे डैमेज कंट्रोल के लिए मोदी को साधते हैं तो कभी आडवाणी को भजते हैं। दरअसल भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की हालत ऐसी हो चुकी है कि सभी को शीर्ष पद पर काबिज होना है पर वह शीर्षता हासिल कैसे होगी इस पर सब चुप हैं। नेतृत्व की आपसी लड़ाई ने भाजपा को कमजोर करने के साथ ही कांग्रेस को मुस्कुराने का मौका दिया है।

फिर जहां तक मोदी की राष्ट्रीय राजनीति में आमद की बात है तो यह तो मानना ही होगा कि मोदी की लोकप्रियता आम और ख़ास नेताओं के मुकाबले कई गुना बढ़ी है। तमाम चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी यह साबित हुआ है कि पार्टी यदि मोदी को चेहरा बनाकर आम चुनाव में उतरती है तो उसे फायदा होगा। पर पता नहीं क्यूं आडवाणी यह बात समझने को तैयार ही नहीं हैं। उनके अंदर तो अभी भी पीएम इन वेटिंग का सपना हिलौरे मार रहा है। हाल ही के घटनाक्रमों पर सरसरी निगाह डाली जाए तो स्पष्ट दिखेगा कि भाजपा प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार को लेकर असहजता महसूस कर रही है; इसलिए कोई इस संवेदनशील मुद्दे पर अपना मुंह नहीं खोलना चाहता| उधर राजनाथ सिंह यूं तो सेनापति की भूमिका में हैं मगर उनके हर फैसले पर किसी ने किसी की छाप स्पष्ट नज़र आती है| फिर भाजपा की दूसरी पंक्ति के नेताओं की जनता में इतनी विश्वसनीयता नहीं है कि पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद हेतु दावेदार घोषित करे| मीडिया में दिल्ली चौकड़ी के बारे में चाहे जो खबरें छपे; यह सच है कि सुषमा जहां अपने लिए सुरक्षित सीट की तलाश में रहती हैं तो अरुण जेटली जनता के बीच ही नहीं जाते| वहीं अनंत कुमार और राजनाथ सिंह का कद अभी इतना बड़ा नहीं हुआ कि उन्हें देश के सर्वोच्च पद हेतु आगे लाया जाए| यानी आडवाणी या मोदी के नेतृत्व में ही भाजपा को आगे का सफ़र तय करना होगा| इसमें भी अब आडवाणी गांधीनगर की सीट छोड़ मध्यप्रदेश से सुरक्षित सीट की तलाश में हैं ताकि यदि भाजपा सत्ता में आती है तो प्रधानमंत्री पद पर काबिज होने हेतु उनके पास लोकसभा की सदस्यता तो हो और इसके लिए उन्होंने शिवराज सिंह को अपना सारथि चुना है। यानी मोदी के समकक्ष शिवराज सिंह को खड़ा कर आडवाणी पार्टी का ही माहौल बिगाड़ने में लगे हैं। गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भले ही मोदी को लेकर कोई स्पष्ट घोषणा न हो पर कम से कम पार्टी के नेताओं को इन सभी सियासी चालों का पटाक्षेप कर देना चाहिए वरना पार्टी की छवि को और नुकसान पहुंचेगा। हां, आडवाणी को इतना ज़रूर समझना चाहिए कि स्व. वल्लभभाई पटेल भले ही प्रधानमंत्री न रहे हों पर देश के कई प्रधानमंत्रियों के अधिक मान-सम्मान है उनका। अब यह आडवाणी को तय करना है कि वे पटेल जैसा सम्मान चाहते हैं या जिन्ना की तारीफ़ करते-करते खुद पार्टी के जिन्ना बनने की हसरत है।

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